पाल कला
भूमिका
कला मानव के वो विचार हैं जिन्हे वह मूर्त रूप प्रदान करता है ।रवींद्र नाथ ठाकुर के अनुसार "कला मानव की मनसिक अभिव्यक्ति है "।आठवीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक बिहार मेंं पाल शासको ने कला के विभिन्न स्वरूपों मेंं अभूतपूर्व योगदान दिया जिन्हे निम्नवत रूप से देख सकतें है ....
स्थापत्यकला चूंकि पाल शासकों पर बौद्ध धर्म का अधिक प्रभाव था इस कारण धार्मिक और निवास दोनो रूपों मेंं स्थापत्यकला का विकास हुआ जैसे .....
- महाविहार
- चैत्य
- मंदिर
- स्तूप
- तालाब
महाविहार -
पाल काल मेंं महाविहार शिक्षा प्रदान करने व निवास के लिए वस्तुतः बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनवाये गये थे। महाविहारो की संरचना बहुत सम्रद्ध तरीके से की गयी थी जिसमे सिंधु सभ्यता की झलक दिखाई पड़ती है जैसे
खुला आंगन
आंगन के चारों ओर बरामदे
बरामदे के पीछे कमरे
सीढ़ियो से छत पर जाने की व्यवस्था
दुमन्जिल कमरे इत्यादि
पाल काल मेंं बने कुछ महाविहार निम्नवत हैं
ओदन्तपुरी - गोपाल
विक्रमशिला - धर्मपाल
सोम्पुर - धर्मपाल
चैत्य -
अवशेषो के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है की ये बौद्ध मंदिर ढ़ेर होंगे जहाँ पर बौद्ध भिक्षु पूजा अर्चना करते होंगे बिहार मेंं इनके अवशेष अनेक स्थानो से प्राप्त हुए हैं । इनका निर्माण तो मौर्य काल से ही प्रारम्भ हो गया था लेकिन इनका विस्तृत निर्माण पाल शासको ने करवाया ।
मंदिर वस्तुतः पाल काल के शासकों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव था लेकिन उन्होंने सर्वधर्म समभाव की नीति अपनायी उन्होंने हिन्दू देवी देवताओं के मंदिरों का भी निर्माण करवाया व निर्माण के लिए प्रोत्साहन दिया । पाल काल के मंदिर खासकर दक्षिण भारत की नागर शैली से प्रभावित हैं जिसके उदाहरण निम्नवत हैं
कहलगांव भागलपुर का गुफा मंदिर
गया का विष्णुपद मंदिर
स्तूप - स्तूपों का निर्माण तो मौर्य काल मेंं ही प्रारम्भ हो गया था परन्तु पाल शासकों ने इनकी संरचना को अधिक विकसित किया सामान्यता पाल काल मेंं इनका प्रयोग धार्मिक द्रष्टि से होता था ।
तालाब - पाल शासकों गोपाल व धर्मपाल ने तालाबों का भी निर्माण करवाया था अवशेषों के रूप मेंं प्राप्त अधिकांश तालाब चौकोर हैं कुछ गोलाकार भी प्राप्त हुए हैं इनको विशेषता महाविहार व चैत्य के आसपास बनया जाता था जिनका उद्देश्य सामान्यता पानी उपलब्ध कराना और सिचाई रहा होगा ।
मूर्तिकला - पाल काल मेंं मूर्तिकला के क्षेत्र मेंं मौर्या काल से भी अभूतपूर्व विकास हुआ इस काल की मूर्तियाँ काँसे और पत्थर दोनो मेंं बनायीं जाने लगी थी जो की सिन्धुघाटी सभ्यता से प्रेरित मानी जातीं हैं ।
कांसे की मूर्तिकला - ये पाल काल की सर्वश्रेष्ठ कला उपलब्धियो मेंं से एक थीं इस काल मेंं दों प्रमुख कलाकार धीमान व बिठ्पाल थे जो धर्मपाल व देवपाल के समकालीन थे । ये मूर्तियाँ साँचों मेंं ढालकर बनायीं जातीं थीं जिनमे अलंकरण की प्रधानता होती थीं अधिकांश मूर्तियाँ धार्मिक थीं जिनमे हिन्दू देवी देवता व बौद्ध धर्म की के देवी देवताओं की प्रधानता थी जैसे बोधिसत्व बलराम तारा विष्णु आदि । कांसे की ये मूर्तियाँ नालंदा कुक्रीहार सुल्तानगंज से प्राप्त हुई हैं ।
पत्थर की मूर्तियाँ - पाल काल मेंं कांसे की मूर्तियों के अलावा पत्थर की भी मूर्तियों का निर्माण होता था ये मूर्तियाँ चुनार से प्राप्त काले बेसाल्ट पत्थर से होता था । इनमे अलंकरण अग्र भाग पर किया जाता था इन्हे संथाल परगना व मुंगेर से प्राप्त किया गया है।
चित्रकला - पाल काल मेंं स्थापत्यकला के साथ साथ मूर्तिकला व चित्रकला भी विकास हुआ जिनको हम निम्न रूपों मेंं देख सकते हैं ।
पाण्डुलिपि -ये प्रायः ताम्रपत्र पर बनाये जाते थे जिनका उपयोग सजावट कए लिया किया जाता था इनमे लाल हरा पीले नीले रंग का प्रयोग किया जाता था जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पंचरक्ष है ।
भित्तिचित्र - इसका प्रयोग दीवारो गुफाओं को सजाने के लिए किया जाता था जिसमे पशुओ पक्षियों मानवों पेड़ पौधों के चित्र बनाये जाते थे इसका प्रमुख उदाहरण नालंदा से प्राप्त सरायकेला मेंं बैठी एक स्त्री का चित्र है जिसे श्रंगार करते हुए दिखाया गया है ।
निष्कर्ष - अतः हम कह सकतें है की पाल काल मेंं कला के क्षेत्र मेंं अभूतपूर्व विकास हुआ इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है की पाल शासक त्रिपक्षीय संघर्ष के बावजूद कला के क्षेत्र मेंं रुचि रखते थे ।